BA Semester-5 Paper-2 Sanskrit - Hindi book by - Saral Prshnottar Group - बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 संस्कृत व्याकरण एवं भाषा-विज्ञान - सरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 संस्कृत व्याकरण एवं भाषा-विज्ञान

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2802
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 संस्कृत व्याकरण एवं भाषा-विज्ञान - सरल प्रश्नोत्तर

प्रश्न- निम्नलिखित प्रयोगों की सूत्रानुसार प्रत्यय सिद्ध कीजिए।

उत्तर -

१. लभ्यम् -

यहाँ लक् धातु से पोरदुपधात् से यत् (य) प्रत्यय होता है, प्रातिपदिक संज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'लभ्यम्' रूप बनता है।

२. नन्दनः, ग्राही, स्थायी।

यहाँ 'नन्द्' धातु से 'नन्दिग्रहिपचादिभ्यो ल्युणिन्यच: सूत्र 'ल्यु' प्रत्यय तथा 'युवोरनाक' से 'यु' स्थान पर अन होकर नन्दन रूप सिद्ध हुआ है। इसी प्रकार 'ग्रह' तथा स्था धातु से णिनि प्रत्यय होकर क्रमश: 'ग्राही' तथा 'स्थायी' रूप बनते हैं।

३. मार्ग्य:

यहाँ 'मृग' 'धातु से 'क्यप्' के विकल्प में 'त्र+हलोर्ण्यत' से 'ण्यत' प्रत्यय होता है। चजो: कुधिण्यतो : से जकार को गकार, मृर्जवृद्धि' से 'त्र+' को वृद्धि और प्रातिपदिक संज्ञा आदि स्वादिकार्य होकर 'मार्ग्य:' रूप बनता है।

४. पक्कः

यहाँ 'पच्' धातु से क्त प्रत्यय 'पंचो वः' से तकार को वकार चो: वुः से कुत्व प्रातिपदित संज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर पक्क: रूप सिद्ध होता है।

५. बुध:, ज्ञ, प्रियः, किर।

यहाँ 'बुध धातु से 'क' प्रत्यय होकर 'बुध' रूप सिद्ध हुआ है। इसी प्रकार ज्ञा, प्री तथा कृ से 'क' प्रत्यय तथा सम्बन्धित कार्य होकर क्रमशः ज्ञः, प्रिय:, तथा किर: रूप बनते हैं।

६. प्रज्ञः सुग्लः।

यहाँ आतश्चोपसर्गे सूत्र के द्वारा 'प्र' उपसर्ग पूर्वक 'ज्ञा' धातु से 'क' प्रत्यय होकर 'प्रज्ञः' रूप सिद्ध हुआ है। इसी प्रकार 'सु' उपसर्ग पूर्वक 'ग्लै' धातु से 'क' प्रत्यय तथा सम्बन्धित कार्य होकर 'सुग्लः ' रूप बनता है।

७. गृहम्

यहाँ 'गृह' धातु घरं अर्थ में है अतः 'गेहे कः' सूत्र से 'क' प्रत्यय होकर तथा सम्बन्धित सम्प्रसारण आदि कार्य होने पर 'गृहम्' रूप सिद्ध हुआ है।

८. गोदः। धनदः। कम्बलदः।

यहाँ गो कर्म के साथ उपसर्ग नहीं है अतः आतोऽनुपसर्गे कः सूत्र से 'दा' धातु से 'क' प्रत्यय होकर 'आतो लोप इति च' से दा' के आकार का लोप होकर 'गोद' रूप सिद्ध हुआ। इसी प्रकार धनदः और 'कम्बलद:' रूप बनते हैं।

९. हसितम्।

हस् धातु से 'नपुंसके भावे क्त' सूत्र के द्वारा नपुंसकलिंग भाव में क्त प्रत्यय होकर हस् + क्त्, हस्+त आर्धधातुकस्मेवलादेः सूत्र से 'इट' का आगम होकर हस्+इ+तृ हसित शब्द बनता है। 'हसित' शब्द की प्रातिपदिक संज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर हसितम् रूप निष्पन्न हुआ।

१०. मिक्षाचरः। सेनाचरः। आदायचरः।

यहाँ भिक्षा, सेना, आदाय उपपद परे रहने पर 'भिक्षासेनाऽऽराधेषु च। सूत्र से 'चर्' धातु से 'ट' प्रत्यय होकर क्रमश: भिक्षाचरः, सेनाचर:, तथा आदायचर: रूप सिद्ध हुए हैं।

११. यशस्करी विद्या। श्राद्धकरः। वचनकरः।

यहाँ 'यश: करोति' इस विग्रह में 'कृञो हेतुताच्छील्यानुलोभ्येषु' सूत्र से हेतु अर्थ में 'कृ' धातु से 'ट' प्रत्यय होकर तथा सम्बन्धित कार्य होकर 'यशस्करी' रूप सिद्ध हुआ। इसी प्रकार 'श्राद्धकर: ' 'वचनकर: ' रूप भी सिद्ध होता है।

१२. प्रियंवदः। वंशवदः।

यहाँ प्रिय और वंश कर्म उपपद रहने पर 'प्रियवशे वदः खच्' सूत्र से 'वद्' धातु से खच् प्रत्यय हुआ है। पुनः मुम् (म्) आगम आदि कार्य होकर 'प्रियंवदः और वंशवदः रूप सिद्ध हुए हैं।

१३. क्रुधः

कु 'पृथ्वी धरति' इति इस विग्रह में मूल 'विमजादिभ्य कः' से के प्रत्यय होता है। त्र + को यण् र हो जाता है। समासकार्य प्रातिपदिक संज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर क्रुधःरूप बनता

१४. शास्त्रम् -

यहाँ शस् धातु से 'दाम्नीशस्' - इत्यादि सूत्र से 'टून्' (त्र) प्रत्यय होता है, प्राप्त इट्को तितत्रत थसिसुरसेषु से निषेध प्रातिपदिक संज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर शस्त्रम्' रूप बनता है।

१५. सुशर्मा। प्रातरित्वा।

यहाँ 'सु' उपसर्गपूर्वक 'शृ' धातु से मनिन् प्रत्यय होकर 'सुशर्मा' रूप सिद्ध हुआ है। इसी प्रकार 'प्रसर' पूर्वक 'इण्' धातु से क्वनिप् प्रत्यय होकर 'प्रातर् + इ + वन्' रूप बनने पर 'ह्रस्वस्य पिति कृति तुक् से तुक् (त्) का आगम होकर 'प्रातरित्वा' रूप सिद्ध होता है।

१६. उखास्रत्। पर्णध्वत्। वाध्भ्रट्।

यहाँ ‘उखायाः स्रंसते ‘इस विग्रह से 'स्रंस' धातु से 'क्विप् च' सूत्र के द्वारा 'क्विप् प्रत्यय' होकर तथा वकार लोप आदि कार्य होने पर 'उखास्रत्' रूप सिद्ध हुआ। इसी प्रकार 'पर्णध्वत्' तथा 'बाध्भ्रट्' रूप बनते हैं।

१७. उष्णभोजी।

उष्णं मुडक्तं तच्छील:' इस विग्रह में उष्णपूर्वक भुज् धातु से सुष्य जातणि निस्ताच्छील्ये से णिनि (इन्) प्रत्यय होता है। उपपद समास विभक्तिलोप, लघुपथगुण, प्रातिपदिक संज्ञा तथा स्वीकार्य होकर उष्णभोजी रूप बनता है।

१८. पारदृश्वा

पारं दृष्टवान् इस विग्रह में पारपूर्वक दृश धातु से 'दुर्शे:' क्वनिप् इस सूत्र के द्वारा भूतार्थ में क्वनिप् (वन्) प्रत्यय होता है। उपपद समास, विभक्ति लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर पारदृश्वा रूप बनता है।

१९. चक्राण:

यहाँ कृ धातु से लिङ् लकार के स्थान पर 'लिटः कानज्वा:' से विकल्प में कानच् (आन्) प्रत्यय होता है। द्वित्व अभ्यास कार्य, प्रातिपदिक संज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर चक्राण: रूप बनता है।

२०. कुमुदवान

'कुमुदा सन्ति अस्मिन् देशे इस विग्रह में 'कुमुद' शब्द से 'कुमुदनऽवेत' सेभ्यो ङमतुप्' से 'ड्मतुप्' प्रत्यय होता है। ड्मतुप में मत् शेष रहता है। कुमुद+मत् ङित् होने से ते: सूत्र से कुमुद+मत् 'द' के 'अ' का लोप्। कुमुद+वत् - झयः से मत् के मकार को वकार होकर प्रथमा एकवचन में 'कुमुदवान् बनता है।

२१. दर्शनीयमानी।

यहाँ 'दर्शनीयम्' सुबन्त उपपद है अतः इसके परे रहते 'मन' सूत्र से मन् धातु से णिनि प्रत्यय होकर 'दर्शनीयमनिन्' रूप बनता है। पुनः उपधा वृद्धि आदि कार्य होकर 'दर्शनीयमानी' रूप सिद्ध होता है।

२२. पण्डितंमन्यः। पण्डितमानी।

यहाँ 'पण्डितमात्मानं मन्यते' इस विग्रह में सुबन्त उपपद 'पण्डितम्' से 'मन' धातु से 'ख‍' प्रत्यय होकर 'पण्डितमन' रूप बनता है। पुनः श्यन्, मुभ् आगम आदि कार्य होकर 'पण्डितमन्यः' रूप सिद्ध होता है।

२३. सोमयाजी।

यहाँ 'सोमेन यागं कृतवान्' इस विग्रह में करण कारकीय उपपद 'सोम' होने पर 'करणे यजः' सूत्र से यज् धातु से 'णिनि' प्रत्यय होकर 'सोमयजिन्' रूप बनता है। पुनः उपधा वृद्धि आदि कार्य होकर 'सोमयाजी' रूप सिद्ध होता है।

२४. राजयुध्वा। राजकृत्वा।

यहाँ 'राजानं योधितवान्' इस विग्रह से कार्य कारकीय उपपद 'राजन' होने के कारण 'राजनि युधिकृञः। सूत्र से 'युध्' धातु से 'क्वनिप्' प्रत्यय होकर 'राजयुध्वा' रूप सिद्ध हुआ है। इसी प्रकार 'राजानं कृतवान्' इस विग्रह से 'राजकृत्वा' रूप बनता है।

२५. सरोजम्।

यहाँ 'सरसि जातम्' इस विग्रह में सप्तयन्त उपपद होने के कारण 'सप्तम्यां जनेई:' से 'ड' प्रत्यय होकर तत्पुरुषे कृति बहुलम् से विकल्प से सप्तमी 'ङि' का लोप होकर 'सरोजम्' रूप सिद्ध हुए हैं।

२६. स्नातं मया। विश्वं कृतवान् विष्णुः।

यहाँ 'स्नातं मया' में 'स्ना' धातु से भूतकाल के अर्थ में 'क्त' प्रत्यय होकर 'स्नातकम्' रूप बनता है। इसी प्रकार 'विश्वं कृतवान् विष्णुः में कर्ता में 'कृ' धातु से क्तवतु प्रत्यय होकर 'कृतवान्' रूप सिद्ध होता है।

२७. शीर्णः। भिन्नः। छिन्नः।

यहाँ 'शृ' धातु से कर्म में 'क्त' प्रत्यय होकर तथा 'त्र+तत इत्' के त्र+कार को इर् तथा इकार को दीर्घ होकर 'शीर् त' रूप बनता है। पुनः रेफ के बाद क्त (त) प्रत्यय होने के कारण 'रदाभ्यां निष्ठातो न पूर्वस्य च दः के द्वारा 'त' के तकार को नकार एवं णत्व होकर शीर्ण रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार 'भिद्' तथा 'छिद्' धातु से क्त प्रत्यय होकर क्रमश: 'भिद्+त' तथा 'छिद्+त' रूप बनने पर ' रदाभ्यां निष्ठातो ० ' सूत्र से 'त' के तकार तथा पूर्व के दकार के स्थान पर नकार होकर 'भिन्ना एवं छिन्ना रूप बनते हैं।

२८. द्राणः। ग्लानः

यहाँ 'डा' धातु से कर्म में क्त प्रत्यय होकर 'डा+त' रूप बनता है। यहां 'द्रा' धातु संयोगादि है आक्रान्त भी है तथा रेफ होने से यण्वान् भी हैं। अतः संयोगादेरातो धातोर्मणवतः सूत्र से 'त' के तकार को नकार होकर 'डा न' रूप बनने पर णत्व होकर प्रथमा के एकवचन में 'द्राण:' रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार 'ग्लै' धातु से 'ग्लान' रूप बनता है।

२९. जीन:

यहाँ 'ज्या' धातु से क्त प्रत्यय तथा नत्व होकर 'ज्यान' रूप बनने पर 'ग्रहिज्या वयिव्याधिवहि' से सम्प्रसारण और पूर्वरूप एकादेश होकर 'जिन' रूप बनता है। पुनः 'हल: ' सूत्र से इकार को दीर्घ ईकार होकर प्रथमा के एकवचन में 'जीन:' रूप सिद्ध होता है।

३०. भुग्नः।

यहां भुन् (भुजो) धातु से क्त प्रत्यय होकर 'भुज्+त' रूप बनने पर 'ओदितश्च' सूत्र से 'त' के तकार को नकार होकर भुज् + न रूप सिद्ध होता है। पुनः जकार को गकार आदि कार्य होकर प्रथमा एकवचन में 'भुग्नः' रूप बनता है।

३१. शुष्कः।

यहां 'शुष्' धातु से क्त प्रत्यय होकर 'शुष्+त' रूप बनने पर 'शुसः कः' सूत्र से 'त' के तकार को ककार होकर प्रथमा के एकवचन में 'शुष्कः' रूप सिद्ध हुआ है।

३२. भवितः। भावितवान्।

यहाँ उपन्त 'भू' धातु से क्त प्रत्यय होकर तथा 'आर्धधातुकस्पेड् वलादेः' से 'त' को इट् का आगम होकर ' भावि + इ + त' रूप बनता है। पुनः 'इट्' सहित 'त' परे होने के कारण 'निष्णयां सेटि' सूत्र से 'भावि' के 'णि' का लोप होकर प्रथम के एकवचन में 'भावित:' रूप सिद्ध होता है। इसी कारण 'भावि' से क्तवतु प्रत्यय होकर 'भावितवान्' रूप बनता है।

३३. दन्तः।

यहाँ 'दा' धातु से 'क्त' प्रत्यय होकर 'दा+त' रूप बनता है। यहाँ त (क्त) प्रत्यय कित् तथा तकारादि भी है अत: उसके परे रहते 'दो दद्धोः' सूत्र से 'दा' के स्थान पर 'दह' होकर 'दद्+त' इस अवस्था में खरिय से चर्त्व होकर 'दन्तः' रूप सिद्ध होता है।

३४. हितम्।

'धा' धातु से निष्ण सूत्र के द्वारा 'क्त' प्रत्यय होकर धा+त् 'द धातेर्हिः' सूत्र से 'धा' को 'हि' आदेश होकर हि+त. हितशव बना। हित की प्रतिपादक संज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'हितम्' रूप बनता है।

 

३५. द्वैमातुरः।

'द्वयोर्मात्रोरपत्यं पुमान् 'इस अंपत्य अर्थ में द्विपूर्वक भातृ (द्विमातृ) शब्द से 'मातुरूत्संख्यासंभद्रपूर्वाया:' से अण् प्रत्यय हिमातृ + अण् णकार की इत्संज्ञा, तथा लोप् 'त्र+त' को उत् (ड) आदेश तथा 'उरण- रपरः' द्विमातुर+ अ से रपर - द्वैमातुर+अ तहितेष्ठचामादेः 'सूत्र से इकार को वृद्धि से होकर द्वैमातुर रूप निष्पन्न हुआ।

 

३६. हित्वा

हित्वा (धारण करके) 'धा' धातु से 'समानकर्तृकयोः पूर्णकाले:' सूत्र के द्वारा 'क्त्वा' प्रत्यय होता है।

३७. मदीय

'मम अयम्' इस विग्रह में एकार्थवाची अस्मद् शब्द से 'व्यदादीनि च' से वृद्धसंज्ञा तथा 'वृद्धाच्छ:' से 'छ' प्रत्यय अस्मद् + छ। मद्+छ् प्रत्ययोत्तरपदयोश्च' सूत्र से 'अस्म्' को मद् आदेश मद् + ईपूछकार को 'आपने पीनीपिय:' से ईप आदेश प्रातिपदिक संज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर मदीप: रूप बना।

३८. जगन्वान्।

यहाँ जगम्+वस् इस अवस्था में 'क्वोश्च' सूत्र से 'जगम्' से मकार के स्थान पर नकार होकर जमन्वस्' रूप बनता है। पुनः नुम् आनम् उपधा की दीर्घ आदि कार्य होकर प्रथमा के एकवचन में जगन्वान् रूप सिद्ध होता है।

३९. जल्पाकः। भिक्षाकः। कुट्टाकः। लुण्टाकः। वराकः।

यहाँ 'जल्पति तत् शील:' इस विग्रह में 'जल्प्' धातु से षाकन् होकर तथा 'ष:' प्रत्ययस्य' से षाकन् के आदि षकार का इत् (लोप) होकर प्रथमा के एकवचन में 'जल्पाक : ' रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार मिस्र' से 'भिक्षाकः, कुट्ट से कुट्टाकः, लुण्ट् से लुण्टाकः तथा वङ् से वराक रूप बनते हैं।

४०. विभ्राट्। भाः।

यहाँ वि पूर्वक 'भ्रज' धातु से 'तच्छील' कर्ता अर्थ में भ्राजभासधुर्विद्युतोर्जिपृजुग्रावस्तुवः क्विप्' से क्विप् प्रत्यय होकर 'विभ्रज + व्' रूप बनता है। पुनः 'वेरपृक्तस्य' से प्रत्यय से प्रत्यय के वकार का लोप होकर प्रथमा एकवचन में 'विभ्राट' रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार 'भारू' धातु सें क्विप् प्रत्यय होकर 'भा:' रूप बनता है।

४१. वाक्।

यहाँ 'क्विब् वत्रिप्रच्छ०' से वच् धातु से 'क्विप्' प्रत्यय और दीर्घदेश आदि कार्य करके वाक् रूप सिद्ध हुआ।

४२. प्राट् -

यहाँ 'पृच्छतीति प्राट' इस विग्रह से 'प्रच्छ्' धातु से 'क्वित्वचिप्रच्छ०' वार्तिक से क्विप् दीर्घ और सम्प्रसारण निषेध होकर 'प्राच्छ' रूप बनता है। पुनः च्छवो शूडनुनासिके च। सूत्र से 'च्छ' के स्थान पर 'श्' होकर प्रथमा को एकवचन में 'प्राट' रूप सिद्ध होता है।

४३. शस्त्रम्। स्तोत्रम् | पत्त्रम्।

यहाँ 'शस्' धातु से ष्ट्रन् प्रत्यय होकर 'शस्त्रम्' रूप बनता है। पुनः यहाँ त्र (ष्ट्रन) प्रत्यय परे होने के कारण 'आर्धधातुकस्पेड् वलादेः से इडागम प्राप्त होता है जिसका 'तितुत्रतमसि ० ' सूत्र से निषेध हो जाता है और प्रथमा के नपुंसकलिंग एकवचन में 'शस्त्रम्' रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार 'स्तोत्रम्' तथा पत्त्रम्' रूप सिद्ध होता है।

४४. आरित्रम्। लवित्रम्। खनित्रम्। चरित्रम्।

यहाँ करण कारक में 'त्र + ' धातु से 'अर्तिलूधूसूख०' सूत्र से इत्र प्रत्यय होकर 'त्र + इत्र' रूप बनता है। पुनः आर्धधातुक गुण होकर प्रथमा के नपुंसकलिंग एकवचन में 'अरित्रम्' रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार लू धातु से लवित्रम्' खन् धातु से खनित्रम्' और चर से चरित्रम् रूप बनते हैं।

४५. चयः जयः।

यहाँ भाव अर्थ में इकारान्त चि धातु से 'एरच् सूत्र द्वारा अय् प्रत्यय होकर 'चि अ' रूप बनता है। पुनः गुण आदेश आदि कार्य होकर 'चय:' रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार 'जि' धातु से 'जयः' रूप बनता है।

४६. करः। गरः। यवः। लवः।

यहाँ भाव अर्थ में 'कृ' धातु से त्र+दोरप् सूत्र से अप् प्रत्यय होकर 'कृ अ' रूप बनता है। पुनः गुण करके 'कर:' रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार 'गृ' से गरः 'यु' से 'यवः' : 'लू' से 'लव:' रूप सिद्ध होता हैं।

४७. प्रस्थः। विघ्नः।

यहाँ 'प्रतिष्ठन्ते अस्मिन्' इस अर्थ में प्र पूर्वक 'स्था' धातु से 'घर्थे कविधानम्' वार्तिक से 'क' प्रत्यय करके 'प्रस्था अ' रूप बनता है। पुनः आकार लोप आदि कार्य होकर 'प्रस्थ: रूप सिद्ध होता है। इस प्रकार 'वि' पूर्वक 'हन्' धातु से 'क' प्रत्यय होकर 'विघ्नः' रूप सिद्ध होता है।

४८. यज्ञः। याञ्चा। यत्नः। विश्नः। प्रश्नः रक्षणः।

यहाँ 'यज्' धातु से भाव अर्थ में 'यज-याच यत- विच्छ- प्रच्छ- रक्षो नङ्' सूत्र द्वारा 'नङ्' प्रत्यय होक 'यज् न' रूप बनता है। पुनः नकार को अकार आदि कार्य होकर 'यज्ञः' रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार 'याच्' की 'याच्ञा' 'यतः' से 'यत्नः' विच्छ्' से विश्न: 'प्रच्छ्' से 'प्रश्न' और 'रक्ष' से 'रक्ष्णः ' रूप बनते हैं।

४९. स्वप्नः।

यहाँ 'स्वप्' धातु से भाव अर्थ में 'स्वपो नन्' सूत्र द्वारा नन् प्रत्यय होकर 'स्वप्न' रूप सिद्ध होता है।

५०. कृतिः। स्तुतिः।

यहाँ 'कृ' धातु से स्त्रीलिंग में भाव अर्थ में स्त्रियां 'क्तिन्' सूत्र द्वारा क्तिन् प्रत्यय होकर कृति: रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार स्तु धातु से स्तुतिः रूप बनता है।

५१. इच्छा।

यहाँ 'इष्' धातु से 'श' (अ) प्रत्यय होकर 'इष्' रूप बनता है। पुन: 'इषुगमियमां छ: ' से षकार को छकारादेश, तुक्, आगम, श्चुत्व आदि कार्य होकर 'इच्छा' रूप सिद्ध होता है।

५२. चिकीर्षा। पुत्रकाम्या।

यहाँ 'चिकीर्ष' 'कृ' धातु का 'सन्' प्रत्ययान्त रूप है। अतः भाव अर्थ में 'अ प्रत्ययात्' सूत्र द्वारा 'अ' प्रत्यय होकर 'चिकीर्ष अ' रूप बनता है। पुनः धातु के अकार का लोप, टाप्, आदि कार्य होकर 'चिकीर्षा' रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार 'काम्यच्' प्रत्ययान्त पुत्रकाम्य' से पुत्रकाम्य' रूप बनता है।

५३. हसितम्।

यहाँ 'हस्' धातु से नपुंसकलिंग में 'नपुंसके भावे क्तः' सूत्र से ल्युट् प्रत्यय होकर 'हस् यु' रूप बनता है। पुनः 'यु' के स्थान पर 'अन' आदि कार्य होकर 'हसनम्' रूप बनता है।

५४. दुष्करः।

यहाँ 'दुस्' उपसर्गपूर्वक 'कृ' धातु से दुःख अर्थ में 'ईषद दुस्सुष०' सूत्र से खल् प्रत्यय होकर
'दुस् कृ अ' रूप बनता है। पुनः गुण और षत्व होकर 'दुष्करः' रूप सिद्ध होता हैं।

५५. दुष्पानः। सुपानः।

यहाँ 'ईषत् ' पूर्वक आकारान्त 'पा' धातु से 'आतो पुत्र' सूत्र से युच् प्रत्यय होकर 'ईषत् पा यु' रूप बनता है। पुनः युं को अन, सवर्ण दीर्घ आदि कार्य होकर 'ईषत्पान:' रूप सिद्ध होता है।

५६. लिखित्वा। लेखित्वा। द्युतित्वा। द्योतित्वा।

यहाँ लिख् धातु हलादि और रलन्त है। इस धातु में इवर्ण भी है। अतः क्त्वा और इडागम होकर रलो व्युपपधात् हलादेः संश्च सूत्र से सेट क्त्वा के कित् होने के कराण गुण निषेध होकर . 'लिखित्वा' रूप बनता है। कित् के अभाव- पक्ष में गुण होकर 'लेखित्वा' रूप सिद्ध होता है।

५७. शमित्वा, शान्त्वा, देवित्वा, द्यूत्वा।

यहाँ 'शम्' धातु से क्त्वा प्रत्यय होकर 'उदितो वा' सूत्र से 'क्त्वा' को विकल्प से इट् आगम होकर 'शमित्वा' रूप सिद्ध होता है। इट् के अभाव पक्ष में उपधा दीर्घ तथा नकार को परसवर्ण होकर 'शान्त्वा' रूप बनता है।

५८. प्रकृत्य।

यहाँ प्र उपसर्ग पूर्वक 'कृ' धातु से क्त्वा प्रत्यय होकर 'प्रकृत्वा' रूप बनता है। पुनः 'समासेऽनञपूर्वे क्त्वो ल्यप्' सूत्र से क्त्वा के स्थान पर ल्यप् होकर एवं तुक् आगम होकर 'प्रकृत्य' रूप सिद्ध होता है।

५९. शरण्यः।

'शरणे साधु:' इस विग्रह में 'शरण' शब्द से 'तत्र साधु', से पत् प्रत्यय 'त' की इत्संज्ञा तथा लोप अन्त्य 'अ' शरण + यत् अकार का लोप होने पर शरण + यृ शरण्य, प्रातिपदिक संज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'शरण्य', रूप बनता है।

६०. मंत्री -

'मन्त्रपति इति' इस अर्थ में 'णिच्' प्रत्ययान्त चुरादि 'मन्त्रि' धातु से 'नन्दिग्रहिपचातिभ्यो ल्युणिन्यच: ' सूत्र से 'णिनि' प्रत्यय होकर 'मन्त्रि + णिनि, मन्त्रि +इन् तथा णेरनिटि सूत्र से 'मन्त्रि' के इ (णिच्) का लोप होकर 'मन्त्र + इन' मन्त्रिन् शब्द बनता है। 'मन्त्रिन् की प्रातिपदिक संज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'मन्त्री' रूप निष्पन्न होता है।

६१. वराक:

 

वृ धातु से जल्पभिक्षकुटलुण्ट्०' सूत्र के द्वारा 'षाकन्' प्रत्यय होकर 'वृ + षाकन्' 'ष:' प्रत्ययाच सूत्र से 'ष' की इत्संज्ञा लोप तथा 'आक' शेष रहने पर 'वृ + आक्' 'त्र+' को गुण 'अर्' होकर वर्+आकृवराक शब्द बना।

६२. ग्लेयम्

यहाँ 'ग्लै' धातु से भाव में 'अचोमत्' से यत् (य) प्रत्यय होता है। 'आदेच' उपदेशेऽशिति से ऐकार को आकार हो जाता है। 'ग्ला+य' इस स्थिति में 'ईधति' से आकार को ईकार, ईकार को गुण एकार प्रातिपदिक संज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'ग्लेयम्' रूप बनता

६३. मृज्य:

 

मृज् धातु से 'मृजेर्विभाषा' सूत्र के द्वारा विकल्प से 'क्यप्' प्रत्यय होकर 'मृज्य' शब्द बनता है। प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'मृज्य:' रूप सिद्ध होता है।

६४. 'हार्यम्' इति शब्दे प्रकृति प्रत्ययौ कौ?

ण्यत् प्रत्यय है। (कृदन्त प्रत्यय के अन्तर्गत)।

६५. धार्यम्।

 

धृ धातु से ऋकारान्त होने के कारण ण्यत् प्रत्यय ऋहलोर्ण्यत् सूत्र से हुआ। ण्यत् हुआ। ण्यत् के णित् होने से उसके परे रहते 'अचो ञ्णिचि' से ऋकार को आर् वृद्धि होने पर धार्यम् रूप बना।

६६. एधितव्यम्

 

एध् धातु से भाव में 'तव्य' प्रत्यय होता है। धातु से विहित होने से ये आर्ध धातुक हैं। वलादि आर्धधातुक होने से तव्य को इट् आगम हुआ।

भाव में ये इसलिए हुआ कि एध् धातु अकर्मक है। अकर्मक से भाव में प्रत्यय होंगे। कर्त्ता अनुक्त है - इस बात को दिखाने के लिए 'त्वया' यह तृतीयान्त कर्त्ता दिया है।


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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- निम्नलिखित क्रियापदों की सूत्र निर्देशपूर्वक सिद्धिकीजिये।
  2. १. भू धातु
  3. २. पा धातु - (पीना) परस्मैपद
  4. ३. गम् (जाना) परस्मैपद
  5. ४. कृ
  6. (ख) सूत्रों की उदाहरण सहित व्याख्या (भ्वादिगणः)
  7. प्रश्न- निम्नलिखित की रूपसिद्धि प्रक्रिया कीजिये।
  8. प्रश्न- निम्नलिखित प्रयोगों की सूत्रानुसार प्रत्यय सिद्ध कीजिए।
  9. प्रश्न- निम्नलिखित नियम निर्देश पूर्वक तद्धित प्रत्यय लिखिए।
  10. प्रश्न- निम्नलिखित का सूत्र निर्देश पूर्वक प्रत्यय लिखिए।
  11. प्रश्न- भिवदेलिमाः सूत्रनिर्देशपूर्वक सिद्ध कीजिए।
  12. प्रश्न- स्तुत्यः सूत्र निर्देशकपूर्वक सिद्ध कीजिये।
  13. प्रश्न- साहदेवः सूत्र निर्देशकपूर्वक सिद्ध कीजिये।
  14. कर्त्ता कारक : प्रथमा विभक्ति - सूत्र व्याख्या एवं सिद्धि
  15. कर्म कारक : द्वितीया विभक्ति
  16. करणः कारकः तृतीया विभक्ति
  17. सम्प्रदान कारकः चतुर्थी विभक्तिः
  18. अपादानकारकः पञ्चमी विभक्ति
  19. सम्बन्धकारकः षष्ठी विभक्ति
  20. अधिकरणकारक : सप्तमी विभक्ति
  21. प्रश्न- समास शब्द का अर्थ एवं इनके भेद बताइए।
  22. प्रश्न- अथ समास और अव्ययीभाव समास की सिद्धि कीजिए।
  23. प्रश्न- द्वितीया विभक्ति (कर्म कारक) पर प्रकाश डालिए।
  24. प्रश्न- द्वन्द्व समास की रूपसिद्धि कीजिए।
  25. प्रश्न- अधिकरण कारक कितने प्रकार का होता है?
  26. प्रश्न- बहुव्रीहि समास की रूपसिद्धि कीजिए।
  27. प्रश्न- "अनेक मन्य पदार्थे" सूत्र की व्याख्या उदाहरण सहित कीजिए।
  28. प्रश्न- तत्पुरुष समास की रूपसिद्धि कीजिए।
  29. प्रश्न- केवल समास किसे कहते हैं?
  30. प्रश्न- अव्ययीभाव समास का परिचय दीजिए।
  31. प्रश्न- तत्पुरुष समास की सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
  32. प्रश्न- कर्मधारय समास लक्षण-उदाहरण के साथ स्पष्ट कीजिए।
  33. प्रश्न- द्विगु समास किसे कहते हैं?
  34. प्रश्न- अव्ययीभाव समास किसे कहते हैं?
  35. प्रश्न- द्वन्द्व समास किसे कहते हैं?
  36. प्रश्न- समास में समस्त पद किसे कहते हैं?
  37. प्रश्न- प्रथमा निर्दिष्टं समास उपर्सजनम् सूत्र की सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
  38. प्रश्न- तत्पुरुष समास के कितने भेद हैं?
  39. प्रश्न- अव्ययी भाव समास कितने अर्थों में होता है?
  40. प्रश्न- समुच्चय द्वन्द्व' किसे कहते हैं? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
  41. प्रश्न- 'अन्वाचय द्वन्द्व' किसे कहते हैं? उदाहरण सहित समझाइये।
  42. प्रश्न- इतरेतर द्वन्द्व किसे कहते हैं? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
  43. प्रश्न- समाहार द्वन्द्व किसे कहते हैं? उदाहरणपूर्वक समझाइये |
  44. प्रश्न- निम्नलिखित की नियम निर्देश पूर्वक स्त्री प्रत्यय लिखिए।
  45. प्रश्न- निम्नलिखित की नियम निर्देश पूर्वक स्त्री प्रत्यय लिखिए।
  46. प्रश्न- भाषा की उत्पत्ति के प्रत्यक्ष मार्ग से क्या अभिप्राय है? सोदाहरण विवेचन कीजिए।
  47. प्रश्न- भाषा की परिभाषा देते हुए उसके व्यापक एवं संकुचित रूपों पर विचार प्रकट कीजिए।
  48. प्रश्न- भाषा-विज्ञान की उपयोगिता एवं महत्व की विवेचना कीजिए।
  49. प्रश्न- भाषा-विज्ञान के क्षेत्र का मूल्यांकन कीजिए।
  50. प्रश्न- भाषाओं के आकृतिमूलक वर्गीकरण का आधार क्या है? इस सिद्धान्त के अनुसार भाषाएँ जिन वर्गों में विभक्त की आती हैं उनकी समीक्षा कीजिए।
  51. प्रश्न- आधुनिक भारतीय आर्य भाषाएँ कौन-कौन सी हैं? उनकी प्रमुख विशेषताओं का संक्षेप मेंउल्लेख कीजिए।
  52. प्रश्न- भारतीय आर्य भाषाओं पर एक निबन्ध लिखिए।
  53. प्रश्न- भाषा-विज्ञान की परिभाषा देते हुए उसके स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
  54. प्रश्न- भाषा के आकृतिमूलक वर्गीकरण पर प्रकाश डालिए।
  55. प्रश्न- अयोगात्मक भाषाओं का विवेचन कीजिए।
  56. प्रश्न- भाषा को परिभाषित कीजिए।
  57. प्रश्न- भाषा और बोली में अन्तर बताइए।
  58. प्रश्न- मानव जीवन में भाषा के स्थान का निर्धारण कीजिए।
  59. प्रश्न- भाषा-विज्ञान की परिभाषा दीजिए।
  60. प्रश्न- भाषा की उत्पत्ति एवं विकास पर प्रकाश डालिए।
  61. प्रश्न- संस्कृत भाषा के उद्भव एवं विकास पर प्रकाश डालिये।
  62. प्रश्न- संस्कृत साहित्य के इतिहास के उद्देश्य व इसकी समकालीन प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालिये।
  63. प्रश्न- ध्वनि परिवर्तन की मुख्य दिशाओं और प्रकारों पर प्रकाश डालिए।
  64. प्रश्न- ध्वनि परिवर्तन के प्रमुख कारणों का उल्लेख करते हुए किसी एक का ध्वनि नियम को सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
  65. प्रश्न- भाषा परिवर्तन के कारणों पर प्रकाश डालिए।
  66. प्रश्न- वैदिक भाषा की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
  67. प्रश्न- वैदिक संस्कृत पर टिप्पणी लिखिए।
  68. प्रश्न- संस्कृत भाषा के स्वरूप के लोक व्यवहार पर प्रकाश डालिए।
  69. प्रश्न- ध्वनि परिवर्तन के कारणों का वर्णन कीजिए।

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